लोका मति के भोरा रे।
जौ कासी तन तजै कबीरा, तौ रामहि कहाँ निहोरा रे॥
तब हम वैसे अब हम ऐसे, इहै जनम का लाहा।
ज्यूं जल में जल पैसि न निकसै, यूँ ढूरि मिल्या जुलाहा॥
राम भगति परि जाकौ हित चित, ताकौ अचरज काहा।
गुर प्रसाद साध की संगति, जग जीतें जाइ जुलाहा॥
कहै कबीर सुनहुं रे संतौ, भ्रंमि परे जिनी कोई।
जस कासी तस मगहर ऊसर, हिरदै राम सति होई॥
जौ कासी तन तजै कबीरा, तौ रामहि कहाँ निहोरा रे॥
तब हम वैसे अब हम ऐसे, इहै जनम का लाहा।
ज्यूं जल में जल पैसि न निकसै, यूँ ढूरि मिल्या जुलाहा॥
राम भगति परि जाकौ हित चित, ताकौ अचरज काहा।
गुर प्रसाद साध की संगति, जग जीतें जाइ जुलाहा॥
कहै कबीर सुनहुं रे संतौ, भ्रंमि परे जिनी कोई।
जस कासी तस मगहर ऊसर, हिरदै राम सति होई॥
इस पद में कबीर साहेब का कथन है की लोग व्यर्थ ही भ्रमित होते हैं। काशी में मरने से कैसे ईश्वर की प्राप्ति हो सकती है। आशय है की काशी में मृत्यु होने पर ईश्वर की प्राप्ति/ राम की कृपा नहीं होती है। हम/आत्मा जो जैसी पहले थी वैसी ही अब है हम ही इसे जन्म का नाम दे देते हैं। जैसे जल में जल मिल जाता है, पुनः उसे पृथक करना सम्भव नहीं है। ऐसे ही जुलाहा (कबीर/आत्मा) एक बार जब पंचतत्व में विलीन हो जाती है तो उसे अलग कर पाना भी सम्भव नहीं है। साधू की संगत और गुरु की कृपा से ही एक जुलाहा (सामान्य आदमी) भी जगत को जीतकर के जाता है। कबीर साहेब कहते हैं की सुनों साधो, कैसा भरम है जैसी काशी है ऐसे ही मगहर ही जिनके हृदय में राम का वास होता है वे सभी जगह पर ईश्वर होता है।
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