पाँड़े बूझि पियहु तुम पानी मीनिंग
पाँड़े बूझि पियहु तुम पानी।
जिहि मिटिया के घरमहै बैठे, तामहँ सिस्ट समानी।
छपन कोटि जादव जहँ भींजे, मुनिजन सहस अठासी॥
पैग पैग पैगंबर गाड़े, सो सब सरि भा माँटी।
तेहि मिटिया के भाँड़े, पाँड़े, बूझि पियहु तुम पानी॥
मच्छ−कच्छ घरियार बियाने, रुधिर−नीर जल भरिया।
नदिया नीर नरक बहि आवै, पसु−मानुस सब सरिया॥
हाड़ झरि झरि गूद गरि गरि, दूध कहाँ तें आया।
सो लै पाँड़े जेवन बैठे, मटियहिं छूति लगाया॥
बेद कितेब छाँड़ि देउ पाँड़े, ई सब मन के भरमा।
कहहिं कबीर सुनहु हो पाँड़े, ई तुम्हरे हैं करमा॥
कबीर साहेब ने जाती आधारित मानसिकता पर प्रहार करते हुए कहा की पांडे तुम क्यों किसी की जाती पहले पूछते हो और फिर पानी पीते हो, यह तुम्हारी मुर्खता ही है। मिटटी के घर में ही समस्त सृष्टि समाई हुई है। छप्पन करोड़ यादव और अठासी हज़ार मुनि इसी मिटटी में समां गए हैं, निहित हैं। तुम्हारे मिटटी के बर्तन में ही तुम जाती पूछकर पानी पीते हो। इस पानी में मगर, कछुए और घड़ियाल बच्चे देते हैं और उनका ख़ून पानी में समाहित है। दी के पानी में सारा नर्क (गंदी चीज़ें) बहकर आता है और जानवर और इंसान सब इसमें सड़ते हैं। ये बर्तन भी उसी मिटटी के बने हैं, जिसमे सभी समाहित हैं और तुम जाती पूछकर पानी पीते हो ? इसी पानी में कई जीव जंतु अपने बच्चों को जन्म देते हैं और उनका खून भी पानी में मिल जाता है।
इस पानी में ही हड्डी और गुदा भी गलकर समाप्त हो जाता है। वेद पुराण में कुछ भी नहीं रखा है, जो है वह कर्म ही है। कबीर इस दोहे में पांडों की जातिवादी सोच की आलोचना करते हैं। पांडे पहले किसी व्यक्ति की जाति पूछते हैं, फिर उसके हाथ का पानी पीते हैं। कबीर कहते हैं कि यह एक मूर्खतापूर्ण धारणा है।कबीर साहेब कहते हैं की यह सब हृदय/दिल का धोखा मात्र है, तुम जैसे कर्म करोगे वह ही तुम्हारे सामने आएगा। आपको ये पोस्ट पसंद आ सकती हैं