स्वागत है इस पोस्ट में, इस लेख में हम जानेंगें "अक्रूर जी और श्रीकृष्ण" की प्रेरणादायक कहानी, जो महाभारत और श्रीकृष्ण के जीवन से जुड़ी है। यह कहानी साहस, विश्वास, और सच्चाई के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देती है। पढ़ते हैं इस प्रेरणादायक कथा को सरल भाषा में, ताकि सभी इसे समझ सकें और इससे जीवन में मार्गदर्शन प्राप्त कर सकें।
अक्रूर जी और श्रीकृष्ण की कहानी
जब कंस को नारद मुनि के माध्यम से यह जानकारी मिली कि श्रीकृष्ण और उनके भाई बलराम वृंदावन में रह रहे हैं, तो उसने उन्हें मथुरा बुलाने की योजना बनाई ताकि वह उन्हें मार सके। इसके लिए उसने अक्रूर जी को अपने पास बुलाया और श्रीकृष्ण और बलराम को मथुरा आमंत्रित करने का निर्देश दिया।
कंस के आदेश पर अक्रूर जी जब वृंदावन पहुंचे, तो उन्होंने श्रीकृष्ण से अपने संबंध और कंस के अत्याचार के बारे में विस्तार से बताया। उन्होंने श्रीकृष्ण को उस भविष्यवाणी के बारे में भी बताया, जिसमें कंस के वध का संकेत दिया गया था। अक्रूर जी की बात सुनकर श्रीकृष्ण और बलराम मथुरा जाने के लिए तैयार हो गए।
मथुरा की यात्रा के दौरान, अक्रूर जी ने श्रीकृष्ण और बलराम को कंस के बारे में कई महत्वपूर्ण बातें बताईं। उन्होंने उन्हें युद्धकला की जानकारी भी दी, जिससे श्रीकृष्ण ने उन्हें अपना गुरु मान लिया।
मथुरा पहुंचने के बाद श्रीकृष्ण ने कंस को चुनौती दी और अंत में उसे मारकर अपने नाना उग्रसेन को मथुरा के सिंहासन पर वापस बैठा दिया। इसके बाद, अक्रूर जी को हस्तिनापुर भेजा गया।
कुछ समय पश्चात श्रीकृष्ण ने द्वारका नगरी की स्थापना की। यहीं पर अक्रूर जी एक बार फिर पांडवों का संदेश लेकर आए, जिसमें कौरवों के साथ युद्ध में श्रीकृष्ण की सहायता मांगी गई थी। श्रीकृष्ण ने पांडवों का साथ दिया, जिससे महाभारत का युद्ध संभव हो सका और अंत में पांडवों की विजय हुई।
अक्रूर जी के पास एक अनोखी स्यमंतक मणि थी, जिसके बारे में कहा जाता है कि जहां यह मणि होती, वहां अकाल का संकट नहीं आता। महाभारत के युद्ध के बाद जब अक्रूर जी श्रीकृष्ण के साथ द्वारका में रहने लगे, तब तक द्वारका में खूब फसल होती रही। लेकिन जैसे ही अक्रूर जी कहीं और चले गए, द्वारका में अकाल पड़ने लगा। नगरवासियों ने श्रीकृष्ण पर मणि की चोरी का संदेह जताया। तब अक्रूर जी वापस द्वारका आए और उन्होंने स्यमंतक मणि को नगरवासियों के सामने प्रस्तुत किया। इससे श्रीकृष्ण पर लगाए गए सारे आरोप गलत साबित हुए।
मथुरा पहुंचने के बाद श्रीकृष्ण ने कंस को चुनौती दी और अंत में उसे मारकर अपने नाना उग्रसेन को मथुरा के सिंहासन पर वापस बैठा दिया। इसके बाद, अक्रूर जी को हस्तिनापुर भेजा गया।
कुछ समय पश्चात श्रीकृष्ण ने द्वारका नगरी की स्थापना की। यहीं पर अक्रूर जी एक बार फिर पांडवों का संदेश लेकर आए, जिसमें कौरवों के साथ युद्ध में श्रीकृष्ण की सहायता मांगी गई थी। श्रीकृष्ण ने पांडवों का साथ दिया, जिससे महाभारत का युद्ध संभव हो सका और अंत में पांडवों की विजय हुई।
अक्रूर जी के पास एक अनोखी स्यमंतक मणि थी, जिसके बारे में कहा जाता है कि जहां यह मणि होती, वहां अकाल का संकट नहीं आता। महाभारत के युद्ध के बाद जब अक्रूर जी श्रीकृष्ण के साथ द्वारका में रहने लगे, तब तक द्वारका में खूब फसल होती रही। लेकिन जैसे ही अक्रूर जी कहीं और चले गए, द्वारका में अकाल पड़ने लगा। नगरवासियों ने श्रीकृष्ण पर मणि की चोरी का संदेह जताया। तब अक्रूर जी वापस द्वारका आए और उन्होंने स्यमंतक मणि को नगरवासियों के सामने प्रस्तुत किया। इससे श्रीकृष्ण पर लगाए गए सारे आरोप गलत साबित हुए।
कुछ समय पश्चात, अक्रूर जी ब्रह्म तत्व में लीन हो गए। उनकी यह कहानी आज भी हमें ईमानदारी, सच्चाई, और कर्तव्य के प्रति समर्पण का संदेश देती है। इस प्रकार यह कहानी हमें संदेश देती है कि हमेशा अधर्म पर धर्म की विजय होती है।
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अक्रूर जी और श्री कृष्ण की कहानी | Akrur Ji Aur Shri Krishna Ki Kahani | Krishna Leela Story
Author - Saroj Jangir
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