लरड़ी माथै ऊन कुण राखै राजस्थानी कहावत का अर्थ

लरड़ी माथै ऊन कुण राखै राजस्थानी कहावत/Rajasthani Phrase

लरड़ी माथै ऊन कुण राखै :- गरीब का शोषण सब करते हैं, लरड़ी/लल्डी का अर्थ भेड़ से है। जैसे ही भेड़ पर उन आ जाती है उसे काट कर बेच दिया जाता है। भेड़ को गरीब और कमजोर मानकर यह कहा जाता है। स्पष्ट है की कमजोर का सभी शोषण करते हैं। सभी कमजोरी का फायदा उठाते हैं। 
 
लरड़ी माथै ऊन कुण राखै राजस्थानी कहावत का अर्थ

इस कहावत का तात्पर्य है कि गरीब और कमजोर व्यक्ति का हर कोई शोषण करता है। 'लरड़ी' का अर्थ भेड़ से है, और 'ऊन' से अभिप्राय है उसके शरीर पर उगने वाले बाल, जिन्हें काटकर बेच दिया जाता है। जैसे भेड़ को उसकी ऊन के लिए उपयोग किया जाता है और उसे कोई बचाने वाला नहीं होता, उसी प्रकार गरीब और कमजोर लोगों को उनके अधिकारों से वंचित किया जाता है, और हर कोई उनकी स्थिति का लाभ उठाने में लग जाता है। यह कहावत समाज में शोषण और अन्याय की सच्चाई को भी उजागर करती है।

This phrase means that everyone exploits the poor and the weak. 'Laradi' refers to a sheep, and 'oon' signifies the wool that grows on its body, which is cut and sold. Just as the sheep is exploited for its wool without any protector, similarly, poor and weak individuals are deprived of their rights, and everyone takes advantage of their helplessness. This proverb highlights the harsh reality of exploitation and injustice in society.

यह कहावत गहरे सामाजिक संदर्भ को दर्शाती है। भेड़ को गरीब और कमजोर के प्रतीक रूप में देखा गया है, जिसका अस्तित्व दूसरों के लाभ के लिए होता है। उसकी ऊन काटने के बाद उसे उसी हाल में छोड़ दिया जाता है। इसी तरह, गरीब और कमजोर लोगों को उनकी परिस्थितियों के कारण शोषित किया जाता है। उनकी मेहनत, अधिकार, और यहां तक कि उनकी आत्मसम्मान तक को नजरअंदाज कर दिया जाता है। 

This proverb reflects a profound social context. The sheep is used as a metaphor for the poor and weak, whose existence is often leveraged for the benefit of others. After its wool is sheared, the sheep is left in the same helpless state. Similarly, the poor and weak are exploited due to their circumstances. Their labor, rights, and even dignity are often ignored or taken advantage of. This phrase compels us to reflect on how society can support the underprivileged and prevent their exploitation.

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