प्रेम प्रेम कोई सब कहे प्रेम ना बुझे कोय हिंदी मीनिंग Prem Prem Koi Sab Kahe Hindi Meaning

प्रेम प्रेम कोई सब कहे प्रेम ना बुझे कोय हिंदी मीनिंग Prem Prem Koi Sab Kahe Hindi Meaning

प्रेम प्रेम कोई सब कहे, प्रेम ना बुझे कोय।
आठ पहर भीगा रहे, प्रेम कहाए सोय।।
Or
प्रेम प्रेम सब कोउ कहत, प्रेम न जानत कोइ।
जो जन जानै प्रेम तौ, परै जगत क्यौं रोइ॥

Prem Prem Koee Sab Kahe, Prem Na Bujhe Koy.
Aath Pahar Bheega Rahe, Prem Kahae Soy 
 
प्रेम प्रेम कोई सब कहे प्रेम ना बुझे कोय हिंदी मीनिंग Prem Prem Koi Sab Kahe Hindi Meaning

कबीर दोहा हिंदी शब्दार्थ Kabir Doha Word Meaning

प्रेम - दिव्य आलौकिक प्रेम, जो सामान्य मानवीय प्रेम से भिन्न होता है। इस प्रेम में आत्माओं का मिलन होता है और भगवान के प्रति अनन्त भावना होती है। यह प्रेम दिव्यता और अनन्तता का अनुभव कराता है।

बुझे-प्रेम - वास्तविक परिचय, अर्थात समझे जाने वाले प्रेम का वर्णन करता है। यह प्रेम सिर्फ शब्दों में नहीं बल्कि कर्मों में भी व्यक्त होता है।

आठ पहर - नित्य प्रेम रस में डूबा रहना, अर्थात पूरे दिन भगवान के प्रेम में लीन रहना। यह अनन्त भावना का प्रतीक है जो भक्त को भगवान के साथ सदैव जुड़े रहने का अनुभव कराता है।

कहाय सोय - वास्तविक प्रेम, जो सोय के विषय में कहाय गया है। यह वास्तविक प्रेम भगवान को पूर्ण श्रद्धा और भक्ति के साथ पाने की इच्छा को दर्शाता है।

प्रेम (Prem) - Divine and spiritual love, which is different from ordinary human love. In this love, souls unite, and there is boundless devotion towards the Divine.

बुझे-प्रेम (Bujhe-Prem) - Real love, which means love that is understood and experienced. This love is not only expressed in words but also through actions.

आठ पहर (Aath Pahar) - To be immersed in the nectar of eternal love, meaning to remain absorbed in the love of God throughout the day. It symbolizes the perpetual connection with God.

कहाय सोय (Kahay Soy) - True love, depicted through the example of sleep. Just as a person yearns for sleep, this phrase conveys the deep longing and desire to attain complete devotion and love for God.

दोहे की हिंदी मीनिंग: साहेब के प्रेम की जो परिभाषा दी है वह दिव्य है। यह प्रेम सांसारिक नहीं है, किसी लालच, तृष्णा से प्रेरित भी नहीं है। यह ऐसा प्रेम है जो बदले में कुछ नहीं चाहता है, बस समर्पण की माँग करता है। इस प्रेम को समय विशेष में भी परिभाषित नहीं किया जा सकता है, यह प्रेम सतत और सार्वभौमिक भी है। ईश्वर के प्रति समर्पण ही वास्तविक प्रेम है जिसे सामान्य रूप से प्राप्त नहीं किया जा सकता है। यह जरा समझने वाली बात है। जहाँ सांसारिक प्रेम बदले की भावना रखता है, बदले में कुछ प्राप्त करना चाहता है, वहीँ पर साहेब का प्रेम ऐसा है जो निस्वार्थ है। भाव है की ईश्वर के प्रेम में जो व्यक्ति लीन रहता है उसे ही प्रेम कहा जा सकता है।

प्रेम दिव्य, निस्वार्थ, और सार्वभौमिक होता है। यह प्रेम आत्मनिर्भर है, लालच और तृष्णा से प्रेरित नहीं होता है। इस प्रेम में कोई भी बदला नहीं चाहता है, बल्कि वह समर्पण की माँग करता है। यह प्रेम विशेष समय के आधार पर नहीं होता है, बल्कि यह सदैव और सर्वव्यापी होता है। ईश्वर के प्रति ऐसा सार्वभौमिक समर्पण वाला प्रेम ही वास्तविक प्रेम है, जो सामान्य रूप से प्राप्त नहीं किया जा सकता है। आपने सही तरीके से बताया है कि साहेब के प्रेम में व्यक्ति निस्वार्थता के साथ लीन रहता है और वहीं से उसे प्रेम कहा जा सकता है।

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उठा बगुला प्रेम का, तिनका चढा आकाश।
तिनका तिनके से मिला,तिन का तिन के पास।।
Utha Bagula Prem Ka, Tinaka Chadha Aakaash.
Tinaka Tinake Se Mila,tin Ka Tin Ke Paas

कबीर के दोहे हिंदी में : सभी दोहे देखे

शब्दार्थ : बगुला-मन (चित्त), तिनका-आत्मा (हल्का)
दोहे की व्याख्या : जब चित्त हरी सुमिरण में लग जाता है तो वह तिनके की तरह से हलकी हो उठती है और आकाश में उड़ने लग जाती है। यह तिनका (आत्मा) पूर्ण परमातम से (तिनका) से मिल पाती है। भाव है की आत्मा जिसने पूर्ण परमात्मा का अंश है वह उससे मिल पाती है। आत्मा (मन) के जाग्रत हो जाने पर अन्य सभी वासनाएं शांत हो जाती है और वह तिनके के समान हल्का हो जाता है। तिनका तिनके के पास पहुँचने से भाव है की आत्मा परमात्मा में समा चुकी है।

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साधू गाँठ न बाँधई उदर समाता लेय।
आगे पाछे हरी खड़े जब माँगे तब देय॥


दोहे की व्याख्या : साधु का स्वभाव संचय का नहीं होता है। साधू उतना ही लेता है जितना उसे आवश्यक होता है, जीवन यापन के लिए आवश्यक होता है। माया उसके जीवन का भी माध्यम होता है लेकिन आधार नहीं होता है। साधू ईश्वर पर यकीन रखता है जो उसके आगे और पीछे रहता है, जब माँगे तभी उसे देने को तैयार रखता है।
कबीरा तेरी झोंपडी गल ग़टियन के पास।
जो करेंगे, सो भरेंगे, तू क्यों भयो उदास।।

दोहे की व्याख्या : यह संसार कर्म प्रधान है, जैसे कर्म व्यक्ति करता है उसे आज नहीं तो कल उसके परिणाम भोगने पड़ते हैं। कबीर यदि तुम्हारी झौपडी कसाइयों के पास है तो इसमें तुम्हे व्यथित होने की आवश्यकता नहीं है। जो जैसा कर्म कर रहा है उसे वैसे ही फल मिलेंगे, तुम्हे उदास होने की आवश्यकता नहीं है।

कबीर सूता क्या करे, कूङे काज निवार
जिस पंथ तू चलना , सोयी पंथ संवार


कबीर के दोहे हिंदी में : सभी दोहे देखे 
 
दोहे की व्याख्या : संसार में भांति भाँती के लोग और विचारधाराएँ हैं, व्यक्ति को अपना मार्ग समझ कर उसका अनुसरण करना चाहिए। अन्यत्र विषयों पर अपना ध्यान भटकाना नहीं चाहिए। जिस राह का अनुसरण उसे करना है उसी का चिन्तन करना चाहिए। भाव है की हमें हमारे उद्देश्य पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए, व्यर्थ का भटकाव नहीं होना चाहिए।

साँच कहूं तो मारिहैं, झूठे जग पतियाइ ।
यह जग काली कूकरी, जो छेड़ै तो खाय ॥

दोहे की व्याख्या : लोग असत्य की राह पर चल पड़े हैं, सत्य का कोई महत्त्व नहीं बचा है, यहाँ केवल झूठ ही पसंद किया जाता है। यह जग काली कुतिया के समान हो गया है जिसे छेड़ने पर यह काटने को दौड़ती है।

यहु सब झूठी बंदिगी, बरियाँ पंच निवाज ।
सांचै मारे झूठ पढ़ि, काजी करै अकाज ॥

दोहे की व्याख्या : दिखावे की भक्ति के प्रति साहेब की वाणी है की यदि सच्चे मन से ईश्वर का सुमिरण नहीं करें और बस पांच वक़्त की नमाजें अदा कर ली तो इससे कोई फायदा नहीं होगा। ऐसे जूठ को पढ़ कर तो सत्य का गला ही घोंटा जा रहा है, काजी तुम ऐसा अकाज (अनीति) मत करों। भाव है की यदि ईश्वर का सुमिरण करना है तो सच्चे दिल से करो, अपने व्यवहार में उसे उतारों, मानवता रखो, इनके अभाव में झूठी भक्ति का कुछ भी लाभ नहीं होगा।


बुरा जो देखन मै चला, बुरा ना मिल्या कोय।
जो मन खोजा आपना मुझसे बुरा ना कोय।।

दोहे की व्याख्या : स्वंय का विश्लेषण करो, दूसरों का नहीं। दूसरों में बुराइयों को ढूँढने के स्थान पर यदि स्वंय का विश्लेष्ण किया जाय तो व्यक्ति और अधिक ईश्वर के करीब आता है और उसे अन्य लोगों से कोई शिकायत भी नहीं रहती है। वर्तमान समय में यह दोहा अत्यंत ही प्रासंगिक है, जहाँ टूटते सबंध इस और इशारा कर रहे हैं की व्यक्तिगत जीवन में साहेब की वाणी कितनी सार्थक है। स्वंय के विश्लेषण के अभाव से ही विवाद पैदा होते हैं, यदि हम स्वंय का विशलेषण कर ले तो दूसरों के लिए भी कुछ गुंजाइश शेष बचती हैं।
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