दोहे का हिंदी मीनिंग /दोहे का हिंदी में अर्थ : भक्ति कोई आसान कार्य नहीं है जिसे हर कोई अपना ले, यह किसी रिस्तेदार (खाला-मौसी) का घर नहीं है जहाँ हर कोई बगैर प्रयत्न के ही प्रवेश कर जाए, भक्ति मार्ग पर अपने शीश (अभिमान/अहम्) को काट कर धरती पर रखने के उपरान्त प्रवेश मिलता है। भाव है की माया को छोड़ना उतना आसान भी नहीं है जितना कहना होता है । माया में जीव स्वंय को सुखद महशूस करता है, वह माया में ही रहना चाहता है और उसे माया को छोडकर भक्ति मार्ग में आगे बढने के लिए त्याग, वैराग्य अपनाना पड़ता है जो कतई भी आसान नहीं है । माया के अतिरिक्त व्यक्तिगत दुर्गुणों यथा, काम क्रोध, मोह माया आदि का भी त्याग करना पड़ता है । भक्ति मार्ग सुगम भी बहुत है उनके लिए जिन्होंने स्वंय पर नियंत्रण स्थापित कर लिया है, जिन्होंने सब कुछ त्याग दिया है हृदय से ।
प्रेम / भक्ति को प्राप्त करने के लिए किसी बाह्य बल की / जतन की यथा, कर्मकांड, पूजा, तीर्थ आदि की आवश्यकता नहीं है, यह तो आंतरिक है, आंतरिक बल लगाने से आशय है की जब अहम् शांत हो जाए, यह बल बहुत बड़ा है जिसे लगाने के लिए साहस की आवश्यकता होती है। इसमें त्याग की आवश्यकता है, एकांत की आशा है जहाँ सस्ती लोकप्रियता गौण हो जाती है। जो स्वंय के शीश/अहम् को लेकर फिरते हैं वे यूँ ही भटकते ही रहेंगे, उनकी कोई मुक्ति निश्चित नहीं है। सब छोड़ना क्या आसान है ? मान मर्यादा, वैभव, जमीन रिश्ते नाते ये सब छोड़ने से आशय है की इनमे अपने मन को उलझाना नहीं है। आखिर में जाना अकेले है और वह भी खाली हाथ, यह समझ में तो आ जाता है पर व्यवहार में इसे लाने में बहुत ही अधिक समय लगता है।
माया मरी न मन मरा, मर मर गये शरीर ।
आशा तृष्णा न मरी, कह गये दास कबीर ।।
Maaya Maree Na Man Mara, Mar Mar Gaye Shareer .
Aasha Trshna Na Maree, Kah Gaye Daas Kabeer दोहे का हिंदी में अर्थ : माया और मन कभी समाप्त नहीं होते हैं, मन माया में ही उलझा रहता है और माया सदा ही श्रृष्टि में बनी रहती है और नए नए शिकारों की खोज में रहती है। इसी चक्कर में शरीर समाप्त होते जाते हैं क्योंकि वे कुछ समय विशेष के लिए बने हैं। आशा तृष्णा नहीं मरती हैं वे माया के ही रूप हैं। भाव है की व्यक्ति को / जीव को माया के चक्र को समझना चाहिए और इसका त्याग करके ईश्वर का सुमिरण करना चाहिए, अपने जीवन के उद्देश्य को समझना चाहिए।
देह धरे का दंड है सब काहू को होय।
ज्ञानी भुगते ज्ञान से अज्ञानी भुगते रोय॥
Deh Dhare Ka Dand Hai Sab Kaahoo Ko Hoy.
Gyaanee Bhugate Gyaan Se Agyaanee Bhugate Roy. दोहे का हिंदी में अर्थ : देह धारण करने के दंड है जिसे हर किसी को भोगना पड़ता है, ग्यानी व्यक्ति इसे सहजता से लेता है और अज्ञानी रोता है, दुःख करता है। देह का दंड क्या है, देह का दंड है, खोने का डर है, प्राप्त करने की लालसा है, यही दुखों का कारण है। सम भाव से ईश्वर का सुमिरण करना कोई ज्ञानी ही कर सकता है।
कबीर सुख में सुमिरण ना किया, दुःख में करते याद।
कहे कबीर दास की, कौन सुने फरियाद।। दोहे का हिंदी में अर्थ : जब व्यक्ति खुश होता है तो माया के चक्कर में पड़कर मतिभ्रम का शिकार होकर मगन हो जाता है, जीवन के उद्देश्य को भूल जाता है, उसकी फ़रियाद उस समय कौन सुने जब दुःख आ धमकते हैं। सुख दुःख तो आते जाते रहते हैं लेकिन जीव् को हर स्थिति में हरी का सुमिरण करते रहना चाहिए। यदि सुखों में हरी के नाम का सुमिरण कर लिया जाए तो दुःख किसी बात का शेष नहीं रहता है। ऐसे ही "कबीर दुःख में सुमिरण सब करे, सुख में करे ना कोय।, जो सुख में सुमिरण करे, दुःख काहे को होय।।"
कबीर हमारा कोई नहीं हम काहू के नाहिं।
पारै पहुंचे नाव ज्यौं मिलिके बिछुरी जाहिं॥
दोहे का हिंदी में अर्थ : इस संसार में कोई किसी का साथी नहीं है, यह केवल इक भ्रम है जिसे जीव को समझना चाहिए,
कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी।
एक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारी। दोहे का हिंदी में अर्थ : आलस करते हुए पूरा जीवन ही निकल जाता है लेकिन जीव को पता ही नहीं चलता है। एक दिन सभी को लम्बे पाँव पसार कर सोना है, इसलिए आलस और निंद्रा का त्याग करके हरी सुमिरण ही इस जीवन का आधार है। माया भ्रम पैदा करती है जिसके कारण से इस जीवन का उद्देश्य स्पष्ट नजर नहीं आता है और जीव इस संसार के ही फंद में घिर जाता है, धन प्राप्ति, यश प्राप्ति उसे घेर लेते हैं। जीव को लगता है की उसे तो इस संसार में सदा के लिए ही रहना है, वह बस यही का विचार करने में लगा रहता है, आगे के मार्ग की सुध नहीं लेता है।
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीरा जन्म अमोल सा, कोड़ी बदले जाय । दोहे का हिंदी में अर्थ : इस शरीर के वश में जीव खाने और सोने में ही अपने अमूल्य जीवन को नष्ट कर देता है और विचार नहीं करता है की करोड़ों जतन के उपरान्त मानुष देह मिली है तो हरी के नाम का सुमिरण क्यों नहीं कर लिया जाए। हीरे जैसे अनमोल जीवन को वह कौड़ियों में बदल कर रख देता है। भाव है मनुष्य जीवन का उद्देश्य और महत्त्व को समझ कर हरी के नाम का सुमिरण करना चाहिए, क्योंकी इस जगत में सदा के लिए नहीं रहना है, सब छोड़ के जाना है, साथ में चलेगा तो बस एक हरी का नाम।
कहैं कबीर देय तू, जब लग तेरी देह।
देह खेह होय जायगी, कौन कहेगा देह। दोहे का हिंदी में अर्थ : यह देह एक रोज समाप्त हो जानी है, जब तक देह है तब तक दान करना चाहिए, एक रोज यह देह समाप्त हो जानी है, नष्ट हो जानी है तो इसे देह कौन कहेगा, इसलिए परोपकार और दान, पुन्य करना ही मानव का धर्म है। साहेब ने सच्ची भक्ति भी उसी को कहा है जिसमे परोपकार हो, दया हो (दया धर्म का मूल है ), जीवों के प्रति अहिंसा हो, यदि यह मानवीय गुण नहीं है तो फिर भक्ति किस काम की ? भाव है की जब तक मानव जीवन है दान पुन्य करना चाहिए।
प्रेम न बाड़ी उपजी , प्रेम न हाट बिकाय।
राजा प्रजा जोही रुचे , शीश दी ले जाय।। दोहे का हिंदी में अर्थ : प्रेम को पैदा नहीं किया जा सकता है, यह कृतिम रूप से पैदा नहीं की जा सकती है, प्रेम को पैसे देकर ख़रीदा भी नहीं जा सकता है, कोई राजा हो या प्रजा, अपना शीश देकर इसे प्राप्त करना पड़ता है। भाव है की प्रेम हृदय से उत्पन्न होता है जो भावनाओं से जुडा हुआ होता है। शीश देकर प्रेम प्राप्त करने से अभिप्राय है की अपने अहम् को शांत/समाप्त करने के उपरान्त ही व्यक्ति प्रेम की प्राप्ति कर सकता है। प्रेम की गली संकरी भी है, इसमें वही प्रवेश कर सकता है जो अपने होने का एहसास समाप्त कर दे। प्रेम से अभिप्राय भक्ति से भी है, ईश्वर के प्रति प्रेम यही दर्शाता है । स्पष्ट है की प्रेम की प्राप्ति के उपरान्त ही कोई व्यक्ति पंडित बनता है जिसे प्राप्त नहीं किया जाता है, ख़रीदा नहीं जाता है बल्कि स्वंय में उत्पन्न किया जाता है।
सुख सागर का शील है, कोई न पावे थाह।
शब्द बिना साधु नही, द्रव्य बिना नहीं शाह॥ दोहे का हिंदी में अर्थ : ज्ञान रूपी समुद्र का स्वभाव शांत होता है, जिसका कोई थाह नहीं पा सकता है, शब्द के बगैर कोई साधु नहीं होता है और धन के अभाव में कोई राजा या शहंशाह नहीं हो सकता है। भाव है की ज्ञान के अभाव में कोई साधू नहीं बन पाता है, जैसे राजा के पास धन ही नहीं हो तो वह राजा कैसे ? साधू वही है जिसके पास ज्ञान है।
बाहर क्या दिखलाए, अनन्तर जपिए राम।
कहा काज संसार से, तुझे धनी से काम॥ दोहे का हिंदी में अर्थ : लोगों को दिखाने के लिए भक्ति किस काम की ? भक्ति तो हृदय से / मन से होनी चाहिए, जिसमे दिखावा,कर्मकांड आदि का कोई स्थान नहीं होना चाहिए क्योंकि तुम्हारा सबंध तो उस परम ब्रह्म से है, किसी अन्य से / संसार से तुम्हें क्या लेना देना है, कुछ नहीं। भाव है की इस संसार में लोग दिखावे की भक्ति करते हैं, यह सिद्ध करना चाहते हैं की उनसे बड़ा कोई भक्त नहीं है, लेकिन जब तार ईश्वर से जुड़ जाए तो लोगों को प्रदर्शन करने का कोई मतलब नहीं बनता है।
झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद।
खलक चबैना काल का,कुछ मुंह में कुछ गोद।। दोहे का हिंदी में अर्थ : जिसे हम सुख समझ रहे हैं वह सुख नहीं है, वह तो मन की एक स्थिति है जिसे हम अनुकूल समझ रहे हैं। ऐसे लोग काल की गोदी में रखे आहार की भाँती हैं जिसे काल ने आधा खा लिया है और आधा उसकी गोद में खाने के लिए तैयार रखा है। भाव है की काल आतुर है अपने शिकार के लिए तो इससे बचा कैसे जाए ? इससे बचने का एक ही तरीका है की हरी के नाम का सुमिरण किया जाए, यही मुक्ति का मार्ग है।
फल कारण सेवा करे, करे न मन से काम।
कहे कबीर सेवक नहीं, चहै चौगुना दाम॥ दोहे का हिंदी में अर्थ : जो लोग फल (परिणाम) की आशा में भक्ति करते हैं वे सच्चे भक्त नहीं हैं वे तो व्यापारी हुए, जो चोगुने भाव मांगता है। भाव है की फल की आशा व्यर्थ है, फल की चिंता व्यक्ति को नहीं करनी चाहिए। सच्चे मन से ईश्वर की भक्ति करना कोई नफे/नुकसान (व्यापार) का विषय नहीं है अपितु यह तो स्वंय का फर्ज है। जो व्यक्ति स्वंय के प्रति इमानदार रहता है वह भक्ति सच्चे मन से करता है और उसमें फल की इच्छा कोई स्थान नहीं रखता है।
तेरा साँई तुझमें, ज्यों पहुपन में बास।
कस्तूरी का हिरन ज्यों, फिर फिर ढ़ूँढ़त घास।। दोहे का हिंदी में अर्थ : साहेब ने इस विषय पर अनेकों स्थान पर गूढ़ वाणी दी है की ईश्वर को ढूँढने, खोजने की जो जुगत समाज में व्याप्त है वह निरर्थक है। खोजा किसे जाए तो गुम हो चूका हो ? ईश्वर की श्रष्टि है, ईश्वर के हम है तो ढूंढे किसे। इस विषय पर साहेब की वाणी है की जैसे हिरण की नाभि में कस्तूरी (मृग की नाभि में पाया जाने वाला चिपचिपा सुगन्धित प्रदार्थ ) है लेकिन वह उसे जंगल जंगल भटक कर ढूंढ रहा है, जबकि कस्तूरी तो उसके पास ही है ! ऐसे ही अज्ञान से भ्रम पैदा होता है और व्यक्ति ईश्वर को काबा, काशी, तीर्थ, मंदिर, कर्मकांड में ढूंढता है। ईश्वर तो ऐसे ही है जैसे फूलों में सुगंध है, फूल और सुगंध को जिस प्रकार से अलग नहीं किया जा सकता है क्योंकि वे प्रथक नहीं हैं, वे तो एक ही है, बस नाम दो हैं। इस गूढ़ रहस्य को जिसने समझ लिया वह स्वंय के अंदर ही हरी को प्राप्त कर पाता है। हरी तो हैं घट में लेकिन उन्हें प्रकाशित करने के लिए सत्य की आवश्यकता होती है, आचरण में सत्यता, शुद्धता होने पर हरी के होने का आभाष होने लगता है। ऐसी अवस्था में व्यक्ति का भटकाव समाप्त हो जाता है। वह निर्मल जल की भाँती, अग्नि की भाँती पवित्र हो जाता है जिसमे कोई मिलावट नहीं रहती है।
कथा कीर्तन कुल विशे, भवसागर की नाव।
कहत कबीरा या जगत में नाहि और उपाव॥ दोहे का हिंदी में अर्थ : कथा कीर्तन एक ऐसी नांव है जिसमे सवार होकर भवसागर से पार निकला जा सकता है, इसके अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग इससे बचने का नहीं है। कथा और कीर्तन का महत्त्व इसलिए भी है क्योंकि यह सतसंगत है और इसका प्रभाव भी होता है, हम जैसे विचारों में रहेंगे वैसे ही विचार हमारे अंदर उत्पन्न होंगे। इसलिए संतजन/साधुजन की संगती और कथा कीर्तन का अपना महत्त्व है।
कबिरा यह तन जात है, सके तो ठौर लगा।
कै सेवा कर साधु की, कै गोविंद गुनगा॥ दोहे का हिंदी में अर्थ : यह देह एक रोज समाप्त हो जानी है इसलिए इसे गंतव्य तक पहुचाने के लिए प्रयत्न करने चाहिए, या तो संतजन की सेवा या फिर तो हरी के गुण गाने से ही इस विकट समस्या से मुक्ति पाई जा सकती है।
तन बोहत मन काग है, लक्ष योजन उड़ जाय।
कबहु के धर्म अगम दयी, कबहुं गगन समाय॥ दोहे का हिंदी में अर्थ : यह तन बड़ा है और मन काग की तरह से है जो लक्ष योजन तक उड़ जाता है, यह कब समझेगा धर्म को नहीं तो यह आकाश में ही समा जाएगा।
जहँ गाहक ता हूँ नहीं, जहाँ मैं गाहक नाँय।
मूरख यह भरमत फिरे, पकड़ शब्द की छाँय॥ दोहे का हिंदी में अर्थ : जहाँ ग्राहकता है, खरीद फरोख्त है मैं वहां नहीं हूँ, मैं तो वहां हूँ जहाँ सभी व्यापार मौन हो जाते हैं । मुर्ख व्यक्ति बस इसी भ्रम में पड़ा रहता है और शबद की तरफ ध्यान नहीं देता है।